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कविता

चुप रहने दो मुझे

अनंत मिश्र


समाधि के स्वाद की तरह
मौन के
आस-पास शब्द
छोटे-छोटे बच्चों की भाँति
उधम मचाते हैं
उन्हें देखने की चेष्टा में
मैं असहजता का अनुभव करता हूँ ,
क्या कर सकता हूँ
मंदिर के सामने मंगलवार के दिन
पंक्तिबद्ध दरिद्रों, अपंगों, कोढ़ियों के लिए मैं
कुछ भी तो नहीं कर सकता
ये शब्द किस काम के हैं
और कविता भी किस काम की
आने वाला है जन्मदिन
एक समाजवादी का
मुझे वहाँ जाना है
वह भी तो कुछ नहीं कर सकते
इन दरिद्रों के लिए
परमाणु डील तो होगा

पर बिजली भी तो नहीं मिटा सकती
भूख के विराट अंधकार को
जो तीसरी दुनिया के तमाम लोगों की
पेट और छाती पर फैला है
चुप रहने दो मुझे
बोलने दो दुनिया को।

 


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